साक्षात्कार- अनुराधा राठी
बस एक कदम की जरूरत है
यात्राओं का मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा महत्व रहा है।समय पुराना रहा हो या नया, रास्ते आसान रहे हों या मुश्किल,जानने की इच्छा और बने बनाए सीधे रास्तों से हटकर चलने की कोशिश हमेशा से होती रही है। जब हम बहुत समय तक एक बंधा हुआ जीवन जीते हैं तो हमें कुछ दिन कहीं घूम आने को कहा जाता है, जिससे कि हमारे विचारों में परिवर्तन आए,नयापन आए। नही तो हम भीतर और बाहर, शरीर और मन दोनों तरह से बीमार होने लगते हैं।
यही बात इंसानी सभ्यताओं और समाजों पर भी लागू होती है। जब समाज अपने बने बनाए नियमों या रास्तों में इतना डूब जाता है की उसे भीतर बैठी हुई कुरीतियाँ या बुराइयाँ दिखाई नहीं देती।ऐसा समाज बीमार समाज है। और ऐसी बीमारी के लिए दवा,अपने भीतर झाँकने से मिलती है। यात्राएँ ही हैं जो हर मरते हुए,दम तोड़ते हुए को जीवित कर सकतीं हैं। हमें बस अपने आस पास देखने की जरूरत है।कितने लोग हैं जिन्हें हम जाने अनजाने अज्ञानता में दुख पहुंचाते हैं या समझने की कोशिश भी नही करते। हमारी यात्रा एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक पहुंचने की होनी चाहिए, उन्हें सुनने और समझने की है, समानता और सम्मान से व्यवहार करने की है।
ट्रांसजेंडर आज भी जो लड़ाई लड़ रहे हैं वो सिर्फ कानूनी अधिकारों की नही है वो मनुष्य समझे जाने की लड़ाई हैं। सुविधाओं और स्वीकार्यता से लैस हम कितना जानते हैं उनके संघर्ष के बारे में, उनकी परेशानियों के बारे में। आज हमनें जिनसे बात की उनका नाम अनुराधा राठी है। अनुराधा जी ट्रांसवीमेन हैं। इतनी सारी परेशानियों के बाद भी वे लगातार संघर्ष कर रहीं हैं और मजबूती से खड़ी हैं।
अनुराधा जी अपने बचपन के बारे में बताते हुए कहती हैं कि पैदा होने के साथ घर में मुझे लड़का ही मानते थे। लेकिन बचपन से ही मेरा रहन-सहन लड़कियों जैसा था।जहाँ मेरे बड़े भाई लड़कों के साथ खेलते थे। वहीं मुझे लड़कियों(कजिन्स) के साथ खेलना,गुड़ियों के वाले खेल खेलना अच्छा लगता था। जब स्कूल जाने का समय हुआ तब मैं छः साल की थी।मेरा दाखिल लड़कों के स्कूल में किया गया था और उस समय इतनी समझ भी नही थी लेकिन साथ पढ़ने वाले लड़के मज़ाक बनाया करते थे कि ये लडकियों की तरह क्यूँ रहता हैं।स्कूल से आते-जाते वक्त भी लड़के छेड़ते थे,चिढ़ाते थे।मेरे भाइयों को मेरे बारे में कहते थे कि ये तो छक्का है,हिजड़ा है। मुझे बहुत बुरा लगता था जब मेरे बारे में बाहर ऐसा कहा जाता था। फिर घर से बाहर मैं नही जाती थी और मुझे बाहर जाना अच्छा भी नही लगता था। घर में रहकर मैं घर की साफ-सफाई, घर को सजाना-सँवारन, मम्मी की काम मे मदद करना किया करती थी।
अनुराधा जी आगे कहती हैं जब मैं पाँचवी-छटी में क्लास में थीं तब मेरे एक कज़िन भाई ने मेरा यौन उत्पीड़न किया था।तब छोटी थी इतनी समझ तो नही थी कि क्या हुआ लेकिन लगा कि कुछ गलत है।
आगे कहती हैं आठवीं और दसवीं के बीच स्कूल में मेरी एक दोस्त आती थी,वो भी एक ट्रांसवीमेन हैं। हम दोनों का व्यवहार और जीवन शैली समान थी। लड़कों के स्कूल में हम दोनों अलग बैंच पर बैठते,स्कूल का काम करते, स्टॉल ओढ़ कर आते।लड़कों के बारे में बात करते थे कौन अच्छा लगता है कौन नही।
दसवीं के बाद माता-पिता ने ये कहते हुए पढ़ाई रुकवा दी कि ये तो ऐसा ही है पढ़ा कर क्या करेगा।घर पे रहेगा अच्छा है,बाहर जाता है तो लोग मज़ाक बनाते हैं और हमें भी सुनना पड़ता है। जब मैंने काफ़ी ज़िद की कि भाइयों की तरह मुझे भी पढ़ना है, किसी तरह माँ को मनाया तब बहुत मुश्किल से मुझे आगे पढ़ाने के लिए मान गए। ऐसे बारहवीं पूरी की।
कॉलेज जाने पर भी सब पूछते थे कि तुम्हे लड़के पसंद हैं ना, लेकिन मैं बताती नही थी क्योंकि बताती तो तब ज्यादा परेशान करते। मुझे बीच में डी जी पंडा कहकर भी चिढ़ाते थे। बड़ी बहन की शादी के बाद खाना बनाने से लेकर सफाई तक घर का सारा काम मैं ही करती थी।
दिल्ली के दिल में
कॉलेज खत्म होने के बाद मुझे मेरे भाई की मदद के लिए दिल्ली भेजा गया।यहाँ भी मैं घर के काम करती रही।
उस समय मुझे एनजीओ के बारे जानकारी थी ना अपने ही बारे में। धीरे-धीरे जब मैंने अखबारों में एनजीओ,LGBTQ और प्राइड परेड के बारे में कुछ आता तो पढ़ती और उसकी कटिंग संभाल कर रख लेती।ऐसे ही एक लेख में एक एनजीओ के संस्थापक का नम्बर आया। मैंने डरते डरते उनसे बात की तो उन्होंने कहा कि आपकी काउंसलिंग करेंगें आप ऑफिस आइए। जब मैं वहाँ गई तो उन्होंने समझाया कि तुम ट्रांसवीमेन हो और उसके बारे में जानकारी दी। समझाया कि खुद को कम मत समझो और दोषी महसूस मत करो।वहाँ बहुत से लोगों से मिली, कुछ दोस्त बने तो अच्छा लगा।फिर वहां जाने लगी उनके कार्यक्रमों में जाने में भी अच्छा लगता था। और भी एनजीओ के संपर्क में आई। तब मैंने खुल के रहना शुरू किया। घुटन कम हुई।
उस समय दिल्ली में ही मैंने फ़ूड प्रोडक्शन का कोर्स होटल मैनेजमेंट में किया था।कॉलेज में तो परेशान किया ही जाता था लेकिन जब मुझे जब इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग में 6 महीने के लिए भेज गया। वहाँ कोल्ड स्टोरेज का काम हमसे ही करवा रहे थे।वहाँ जो सैफ़ या और लोग थे वो कोल्ड स्टोरेज के अंदर आ जाते थे, छेड़ते थे, परेशान किया करते थे। हमें बहुत अजीब लगता था, शिकायत भी नही कर सकते थे, ट्रेनीज की कोई सुनता भी नही था। ट्रेनीज को ऐसे ही समझते थे, मजदूर की तरह काम कराया जाता था। लगभग दस साल हो गए हैं।अब तो संवेदनशीलता बढ़ गई है, शिक़ायत दर्द करवा सकते हैं। इसलिए मैंने वहाँ जॉइन भी नही किया कि अभी ये लोग इतना परेशान करते हैं बाद में तो काम भी नही कर पाएंगे।
नौकरी के लिए कई साक्षात्कार दिए लेकिन कहीं भी काम नही बना। वो लोग पूछते थे कि ऐसे क्यूँ बोल रहे हो, पहले अपना बोल-चाल,उठना बैठना ठीक कीजिए। मैं सोचती थी कि जब मुझे कुछ गलत नही लग रहा है तो इन्हें क्यूँ लग रहा है। सब जगह से मुझे नेगिटिव पॉइंट मिले और कहीं मेरी नौकरी नही लगी। जिस वजह से मैं अवसाद(डिप्रेशन)में आ गई। भाई की शादी के बाद उसके साथ भी रिश्तों में तनाव आ गया,वहाँ रहना मुश्किल था।गाँव में भी नही रह सकती थी वहाँ का माहौल ही घुटन भरा था।
बरसाने की सखियों में
अनुराधा जी बताती हैं कि फिर एक बार उन्होंने बरसाना के बारे में पढ़ा। की वहाँ सखियाँ रहती हैं जो राधा कृष्ण की भक्ति करती हैं और आध्यात्मिकता में डूबी रहती हैं। वहाँ की होली के बारें में भी बहुत सुना था तो मैंने अपना सामान रखा और होली के समय वहाँ चली गई।
वहाँ मंदिर की सीढ़ियों पर मुझे एक सखी मिली जो वहाँ बैठी माँग रही थी। उसने मुझे देखते ही पहचान लिया। बैठने के लिए कहा,मेरे बारे में पूछा।उसने बात करके मुझे अच्छा लगा।
मैंने अपनी समस्याओं के बारे में उन्हें बताया और की यहाँ के बारे में मुझे कुछ पता नही है कहाँ रहना है,कैसे रहना है। तब उन्होंने मेरी मदद की, मुझे अपने कमरे पे ठहराया जहाँ तीन चार दिन रही मैं।सब जगहें दिखाई। जब वो माँगने के लिए जाती थी तब मुझे भी साथ ले जाती थी। कुछ पैसे मुझे भी मिल जाते थे। लेकिन माँगना मुझे अच्छा नही लगता था।घर से थोड़ा बहुत जेब खर्च मिल जाता था तो मैं वहीं रहने लगी। कुछ मिले, प्रेमी मिले। कुछ समय सब ठीक रहा।
मैंने वहाँ कुकिंग क्लास भी देनी शुरू की, कुछ गरीब लड़कियाँ वहाँ थी तो सोचा की चलो इन्हें कुछ सिखाया जाए।
मैंने आसपास की लड़कियों से कहा की तुम 50-50 रुपये जमा करो एक विधि के, मैं सिखाऊंगी तुम सीखना। उनके पास पैसे थे नही तो मैंने उन्हें बिना पैसे के सिखाया। जिसे मैंने फेसबुक पे डाला और इससे मुझे थोड़ी बहुत पहचान भी मिली। इसी समय फेसबुक पर कमआउट भी किया। तब परिवार बहुत नाराज़ हुआ की गाँव के कह रहे हैं की इनके लड़के को हिंजड़े ले गए,वो हिंजड़ों में चला गया।माँ ने नाराज़ होते हुए कहा की अब घर मत आना, तुमने हमारी बेज्जती करवा ली,अपना मुंह काला करवा लिया।मैंने कहाँ की जब मैंने कुछ गलत किया ही नही है,अगर तुम्हें गलत लग रहा है तो वो तुम्हारी सोच है उसका मैं क्या करूँ। उन्होंने मेरा जेब खर्च भेजना भी बंद कर दिया। मैंने इसे भी स्वीकार किया।नौकरी नही थी, सत्संग-कीर्तन से और भंडारे आदि से किसी तरह से तरह निर्वाह किया। फिर धीरे धीरे और तरह की समस्याएं वहाँ आने लगीं। हमें कमरे नही मिलते थे आसानी से, लाइट काट दी जाती थी, कुछ लोग परेशान भी करने लगे थे।
पाँच छः महीने बाद फिर घर से फोन आता है कि जो हुआ उसे भूल कर घर आ जाओ, लेकिन लड़के की तरह आना, घाघरा-चोली पहन के मत आना।बालों को छुपा लेना टोपी के अंदर नही तो फिर लोग बोलते हैं फिर। फिर थोड़ा बहुत घर भी जाने लगी। कुछ समय बाद बरसाना भी छोड़ दिया और आगरा शहर चली गई। लेकिन वहाँ का अनुभव बिलकुल भी अच्छा नही रहा। बरसाना में आध्यात्मिक तरीक़े की स्वीकृति तो थी, यहाँ तो वो भी नही था।कुछ भी नया शुर करने के लिए कोई सहयोग करने वाला नही था। आईका की तरफ से काफ़ी मदद मिली लेकिन ज़मीनी तौर पर कोई मदद नही थी। सब मज़ाक की तरह ले रहे थे। और भी कई कारण थे(जिन्हें सार्वजनिक तौर पर कहना नही चाहती) जिनसे मुझे बहुत डर लगा।
फिर कोविड आया, लॉकडाउन लगा। अपना सामान किसी तरह गाँव में रखवा दिया। तब मुझे शैल्टर होम के बारे में पता चला। और अभी भी मैं शैल्टर होम में ही रह रही हूँ।यहाँ पर ये लोग कोर्स करा रहें हैं इंग्लिश और कंप्यूटर का। लोग जैसे जैसे जान रहे हैं तो मदद भी करते है। स्थिति बहुत अच्छी तो नही है लेकिन थोड़ी बहुत बेहतर है ऐसा कहा जा सकता है।
गाँवों या छोटे शहरों की तुलना में महानगरों में स्थिति थोड़ी बेहतर लगती हैं।
परिवार ने समझने में बहुत ज्यादा समय लिया।अब भी घर मे खुलके नही रह सकते, लड़कों की तरह रहना होता है। परिवार के लिए बहुत से समझौते करने पड़ते हैं, आगे भी करने पड़ेंगें। लेकिन कोशिश तो कर ही रहें हैं, देखें आगे क्या होता है।