गौरव पर कविता
By Raj Negi
हाँ मानता हूँ की, हे मेरा लिबाज़ थोड़ा सा अलग
हाँ मानता हूँ की, है मेरी चाल में वो लचक ,
हाँ मानता हूँ की है मेरी कमर में थिरकन ,
हां मानता हूं की मेरी बोली में थोड़ा खींचाव। है
हाँ मानता हूँ की, है मेरे विचार थोड़े से अलग ,
हाँ मानता हूं कि मुझे पसंद है ,मेरी नज़ाकत ।
हां मनता हूं की पसंद है मुझे स्ज़्ज श्रृंगार
मुझे पसंद है ,मेरा मुझ जैसा होना
मुझे मुझ जैसा रेहेने दो,बकियो की तरह तो सब बन ना चाहते हैं,
पर पर पर मेरा एक सवाल है इस समाज से,
कौनन हो आप ? मेरे अस्तित्व पर सवाल करने वाले?
क्योंकि जिस ईश्वर ने अपको बनाया है ,उसने मुझे भी बनाया है!
आप बनाने वाले की कद्र आप करते हैं, पर उसकी बनाई रचना की बेकद्री भी करते हे!
एक जंग है जो में जीत कर भी हार जाऊँगा, क्योंकि शायद इस समाज की सोच में शायद कभी नहीं बदल पाउगा ,
इस समाज की कुछ बातें है जो मुझे समज नहीं आती,
इस समाज की ये बंदिशे मुझे कतै नहीं भाँती है,
जैसे कि ,ये मत करो ,वो मत करो, ऐसा मत पहनो वैसा मत खाओ, फला फला,ये मत बोलो वो मत सोचो,
ऐसा लगता है जैसे कोई कठपुतली हूं मै,
और इस समाज ने मुझे नचाने का ठेका ले रखा है,
जब ज़िन्दगी ये मेरी है , सांसे मेरी है,
दिल की धड़कने मेरी , और जब ये रूह मेरी ,
तो उसकी आज़ादी पर हक़ जताने वाला ये समाज कोन होता है।
याद है मुझे वो दिन जब पहली बार किसी ने मेरे होने पर सवाल उठाए थे ,
जैसे जज्बातो का तूफान ,सवालो की सुनामी सी आगई थी मेरे दिल और दिमाग में ,
और उस वक़्त ना कोई मेरे सवालों का जवाब देने वाला था। ना कोई उन जज्बातों को समजने वाला
ना गूगल दादा थे, न ब्राउज़र भैया,
थे तो बसकुछ अनबूने से खुवाब , कुछ अनछुए से जज़्बात !
कुछ अनकहे किस्से , कुछ अनकही कहानिया
कुछ खिलखिलाती हुए चेहरे हे , कुछ चीपे हुए आंसू
इस समाज का ये खेल समझ नहीं आता ,
इनके लिए वो सारी चीजे अजीब,
है जो इनकी समझ बाहर है
तो बस तू पंख खोल उड़ान लेे ,
ये आसमान तेरा है, इसकी ना कोई सीमा है ना किसी समाज का डेरा है,
तू बस पंख खोल,और उड़ान ले ,ये आसमान तेरा है!