साक्षात्कार- धनंजय चौहान
क्या किसी ने कभी सोचा है की हम और आप,पुरुष और महिलाओ में से अधिकतर, तमाम छोटी बड़ी परेशानियों के बाद भी अपना जीवन कितनी सुविधाओं,विशेषाधिकारों और स्वीकार्यता के बीच बिताते हैं, जिसे हम कभी महसूस भी नही करते हैं। आसपास की रूढ़ियों और कुरीतियों से लड़ते हुए हमारा परिवार और समाज से संघर्ष तो रहता है लेकिन तब भी कोई हमारी पहचान या अस्तित्व पर सवाल नही उठाता। लेकिन तब किसी को कैसा लगेगा जब उन्हें इंसान होने के मानकों से बाहर कर दिया जाए। या महिला या पुरुष होने की परंपरागत परिभाषाओं को उन पर थोपने की कोशिश की जाए। जब उनसे उनके अवसर,अधिकार,समानता,पहचान,स्वीकार्यता सब छीन लिए जाएँ। ट्रांसजेंडर समुदाय सदियों से इसी तरह की स्थितियों से गुजर रहा है। जहाँ उन्हें समाज से सिर्फ घृणा और अस्वीकार्यता मिली है। समाज में औरतों और मर्दों के बीच मे रहते हुए भी उन्हें इस तरह अनदेखा किया गया जैसे वे हैं ही नही। न उन्हें परिवार स्वीकार करता है, न समाज,न सरकारों की तरफ से नियम कानून बना और अवसर दे उनकी सहायता की गई।
इस बार हमनें जिनसे बात की उनका नाम धनंजय चौहान है। धंनजय जी ट्रांस महिला हैं। अपने जीवन और शिक्षा के लिए उन्होंने बहुत से संघर्ष किए और कर रही हैं। ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की शिक्षा और अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहीं हैं। पंजाब विश्वविद्यालय में पढ़ रही हैं। और लगातार अपनी हिम्मत,साहस और उपलब्धियों से न सिर्फ ट्रांसजेंडर समुदाय बल्कि सभी लोगों के लिए एक मिसाल कायम कर रहीं हैं।
पहचान का संकट और उत्पीड़न
धंनजय जी अपने बचपन के बारे में बात करते हुए कहते हैं की मेरा जन्म तो उत्तराखंड में हुआ लेकिन जन्म के कुछ महीने बाद ही 1971 में ही चंडीगढ़ आ गया था। पाँच साल की उम्र से ही मुझे अपनी पहचान के बारे में ज्ञात होने लगा था। तब से ही खुद को एक औरत के रूप में ही बढ़ते देखा, वैसे ही उठना-बैठना,चलना, कपड़े पहनना अच्छा लगता था।छः साल में जब स्कूल में दाखिला हुआ तब बाहर देख कर समझ आया की यहाँ दो ही चीजों का महत्व है औरत और मर्द। उन्हीं की के हिसाब से सारा ढाँचा काम करता है। वाशरूम इस्तेमाल करने में परेशानी होती थी की महिलाओं वाले में जाएँ या पुरुषों वाले में।सात-आठ साल तक आते आते जब दिक्कतें होने लगीं तब मैंने अपनी माँ को बताया कि मुझे लगता है मैं लड़की हूँ तो वो लोग मुझे ओझा के पास ले गए। उसने झाड़ फूक किया और कहाँ की इसके अंदर कोई चुड़ैल या भूतनी आ गई है, उसने मुझे गरम चिमटे से मारा पीटा।तब मैंने कहा कि अब नही कहूँगी तो उसने कहा कि बच्चे अब ठीक हो गया है इसे घर ले जाओ।इसी उम्र में यौन शोषण(सेक्सुअल एब्यूज) भी शुरू हुआ। आस पड़ोस के लोग सेक्सुअल एब्यूज करते थे। स्कूल के लड़के छेड़ते थे। कुछ रिश्तेदार अंकल थे, तब यौन शोषण के बारे में इतना पता तो नही था लेकिन जब कोई गलत तरीके से छूता था,या जबरदस्ती चूमता या पकड़ता था तो अच्छा नही लगता था, अजीब लगता था। परिवार के लोग समझते नही थे इसे बुरा नही मानते थे उन्हें लगता था की लोग प्यार कर रहे हैं जबकि ऐसा नही होता था।बढ़ती उम्र में हार्मोंस में बदलाव होता है। जैसे औरतों को अट्रैक्शन होता है वैसे ही ट्रांस वीमेन को भी होता है।ट्रांस वीमेन का शरीर पुरुष का होता है लेकिन आत्मा स्त्री की। हमारे भीतर बदलाव हो रहे होते हैं, हमारा साइकोलोजिकल सेक्स हमारे बायलोजिकल सेक्स से मेल नही खा रहा होता है, इससे जिनती उलझने और परेशानियों से हम गुज़र रहे होते हैं उन्हें कोई नही समझता।स्कूल में लड़कों वाले खेल नही खेलने देते थे ,कहते हुए की तू लड़कियों जैसा है, तुझे लड़कियों के बीच रहना चाहिए।लड़कियाँ कहती थी तुम लड़के हो उनके साथ रहो।नौवीं-दसवीं में डिप्रेशन में रही, आत्महत्या करने की कोशिश भी की। लेकिन फिर ग्याहरवीं-बारहवीं तक आते खुद को संभाला, पढ़ाई में मेहनत की। पढ़ाई में अच्छी रही।आगे बीए ऑनर्स किया और उस समय मैं पंजाब यूनिवर्सिटी की टॉपर रही।इस दौरान सारे यूथ फेस्टिवल में भाग लिए और कई पुरस्कार भी जीते।अपनी पहचान को लेकर काफी परेशानियाँ आती रहीं। मेरे भीतर की जो स्त्री थी वो बार बार बाहर आने की कोशिश करती थी।बाहर जाकर मुझे जो मर्द बनकर रहना पड़ता था वो एक बोझ की तरह लगता था।
1993 में बीए पूरा करने के बाद, एम ए के लिए इतिहास विभाग में दाखिला लिया। उसके कुछ दिन बाद ही मेरे साथ रैगिंग की गई।कुछ लड़के(सीनियर) मुझे डिपार्टमेंट के पीछे ले गए।मेरे कपड़े खोलने लगे, कहने लगे की तुम लड़की जैसे कैसे हो। मैंने रोकने की कोशिश की तो मुझे मारा-पीटा। बड़ी मुश्किल से अपने को छुड़ा कर मैं वहाँ से भागी।उसके बाद से मैं डिपार्टमेंट नही गई।एम ए छोड़ दिया और नौकरी करने लगी।
1994 में मैंने फिर लॉ में दाखिला लिया। क्योंकि दिन में मुझे नौकरी करनी थी होती थी इसलिए मैंने शाम का कॉलेज लिया।जिसमें 5:45 से लगभग नौ बजे तक क्लास होती थी।एक दिन जब क्लास जरा जल्दी खत्म हो गई और सब लोग जाने लगे तो एक लड़का मेरे पास आया और कहा की कोई तुम्हे बुला रहा है। मैं उसके पीछे गई तो देखा एक क्लास में दस-बारह लड़के बैठे हुए हैं, जैसे ही मैं अंदर गई तो उन्होंने दरवाज़ा बंद कर लिया। कहा की हम तुम्हारे सीनियर हैं और जैसा बोलेंगे वैसा करना पड़ेगा। मेरा और दूसरी चीजें पूछी गई। कहा की डांस करके दिखाओ, गाना गाकर दिखाओ।मेरे कपड़े खुलवा लिए, बदतमीजी करने लगे। उनके सामने गिड़गिड़ाई की मुझे छोड़ दो,जाने दो।रोने लगी। तब उनमें से एक लड़के ने कहा की अब बहुत हो गया उसे जाने दो। उसने मुझे कहा कि जल्दी से कपड़े पहनो और जाओ। मैंने पकड़े पहने और जल्दी से भाग गई वहाँ से। रात बहुत हो चुकी थी और चौकीदार गेट बंद कर रहा था।उसके बाद मैंने लॉ भी छोड़ दिया। नौकरी करती रही लेकिन वहाँ भी लोग अजीब सी नजरों से देखते थे|
2002 में चंडीगढ़ में ही दो लड़कों ने धंनजय जी का अपहरण किया।जब उन्होंने खुद को छुड़ाने की कोशिश की तो उन्होंने पिस्तौल निकाली और उनकी कनपट्टी पर रख दी और जान से मार देने की बात कही। उन्हें गाड़ी में चंडीगढ़ से अंबाला की ले गए। वे बताती हैं की कोई अजीब सी जगह थी शायद कोई पीजी था जहाँ बीस लड़के ताश खेल रहे थे और शराब पी रहे थे। उन बीस लड़कों ने बारी से पूरी रात मेरे साथ रेप किया और सुबह चार पाँच बजे के करीब मुझे अंबाला के बस स्टैंड पर छोड़ दिया। मेरे हाथ पाँव कांप रहे थे, वहाँ से बड़ी मुश्किल से मैं हरियाणा रोड़वेज की बस में चढ़ी और किसी तरह चंड़ीगढ़ पहुँची। पुलिस के पास गई उन्होंने कहा कि गलती तुम्हारी है तुम गई क्यूँ, उन्होंने कुछ सुना ही नही।उस समय मैं बहुत परेशान रही।दिमाग मे यही चलता रहा की ऐसा क्यूँ हुआ मेरे साथ।डिप्रेशन में आई, आत्महत्या करने की कोशिश की लेकिन फिर अचानक से महसूस हुआ की मैं क्यूँ आत्महत्या करूँ? मैंने क्या किया है? मैंने तो किसी का रेप नही किया। रेप तो लोगों ने मेरे साथ किया है।
उस दिन मैंने तय किया की मुझे मरना नही है बल्कि लोगों की ऐसी सोच सोच को मारना है जो मेरी गलती के बिना मुझे अपराधी बनाती है।
सक्षम ट्रस्ट और नालसा फैसला
उसके बाद धंनजय जी ने और ट्रांस महिलाओं से बात करना और उन्हें संगठित करना शुरू किया। उन्होंने अपना ग्रुप बनाया जो लगभग रोज मिलता था और चर्चा करता था। शुरुआत में चर्चाएँ आम ही रहीं लेकिन धीरे धीरे उन्होंने गंभीर रूप लेना शुरू किया
2004 में एक बार फिर उनके साथ गैंग रेप हुआ।उन्हें मारा गया और उनके ऊपर पेशाब किया गया।
लेकिन उन्होंने हिम्मत नही हारी और काम करते रहे। 2009 में उन्होंने एक एनजीओ बनाया सक्षम ट्रस्ट नाम से। सक्षम ट्रस्ट के बनने के बाद उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सेमिनार और वर्कशॉप में बुलाया जाने लगा। वे कहती हैं इसमें भाग लेने के बाद जेंडर के बारे में समझ बनी, जानकारी मिली, ज्ञान बढ़ा।
2012 में नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी(नालसा) के साथ मिलकर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका(पीआईएल) दायर की। 2014 में सुप्रीम कोर्ट के नालसा फैसले के तहत थर्ड जेंडर को मान्यता मिली। और उन्हें महिला और पुरुषों को मिलने वाले सभी अधिकार तथा रिज़र्वेशन देने की बात हुई।बराबरी का दर्जा और बराबरी के अधिकार देने के लिए सरकार को नसीहत दी गई।
2013 में उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी में प्राइड परेड और गर्व उत्सव मानना शुरू किया। जिसकी परमिशन उन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन से नही मिली,उन्होंने साफ शब्दों में कहा की इस तरह का कोई कार्यक्रम यहाँ नही होगा ये गलत काम है। इसके बाद भी उन्होंने परेड का आयोजन किया।इसके बाद 2014 में भी परेड हुई।
किन्नर समाज से निराशा
वे बताती हैं की वैसे तो किन्नर, हिजड़ा या ट्रांसजेंडर एक ही होते हैं। ये बस अलग अलग नाम हैं जो अलग अलग जगहों में प्रचलित हैं। ट्रांसजेंडर कोई विकृत शरीर मे पैदा नही होते। जिनका जन्म पुरुष शरीर मे हुआ है लेकिन वे खुद को महिला मानते हैं वो ट्रांसवीमेन कहलाती हैं। और जो महिला के शरीर मे जन्में लेकिन खुद को पुरुष मानते हैं वे ट्रांसमैन कहलाते हैं।इनके लिए वे ट्रांस वीमेन का उदाहरण विष्णु के मोहिनी रूप और अर्जुन के ब्रह्नलला के रूप को रखती हैं। और ट्रांसमैन का उदाहरण शिखंडी को रखती हैं।वे कहती हैं की किन्नर या हिजड़ा एक परंपरा या संस्कृति है जिसमें आशीर्वाद देते और बधाई लेते हैं।सभी हिजड़ा ट्रांसजेंडर होते हैं लेकिन सभी ट्रांसजेंडर हिजड़ा नही होते।सभी ट्रांसजेंडर हिजड़ा नही बनते, वे पढ़ाई करते हैं, नौकरी करते हैं।कुछ न कुछ काम करते हैं, चाहे छोटा- मोटा काम ही सही।
धनंजय जी बताते हैं 2015 में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब मैंने हिजड़ा और ट्रांसजेंडर लोगों को पढ़ने के लिए कहा। जो युवा थे उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन कोई भी ट्रांसजेंडर नही माने, उन्होंने कहा की पहले ही हमारे साथ इतना डराना-धमकाना,उत्पीड़न और भेदभाव हो चुका है की हमनें स्कूल छोड़ दिया, अब यहाँ आयेंगे तो यहाँ भी वही सब होगा। हिजड़ा लोगों के पास गए तो उन्होंने कहा की हमारा काम पढ़ने लिखने का नही है, हम भीख माँगने या बधाई माँगने के लिए पैदा हुए हैं, हमारा काम आशीर्वाद देना है। उन्होंने मुझे भी पढ़ने से मना किया। कहा की ट्रांसजेंडर लोगों को कोई नौकरी नही देता और जब नौकरी नही तो पढ़ने का क्या फायदा। मैंने कोशिश की उन्हें समझाने की पढ़ने का मक़सद सिर्फ नौकरी नही है,हमें ज्ञान मिलता है तो चीजों के बारे में एक समझ बनती है। जरूरी नही की सरकारी ही नौकरी हो कई तरह के काम है दुनिया मे जो किये जा सकते हैं। पढ़ाई से हमारा नज़रिया बनता है।उन्होंने मुझे कोई सहयोग नही दिया और ये कहते हुए भगा दिया की हम नही पढेंगे और ना ही तुमको पढ़ने देंगें। तुम्हें अगर पढ़ना है तो पैंट-शर्ट में जाओ साड़ी में नही, नही तो तुम्हे पीटेंगे।
धंनजय बताती हैं की शायद उन्हें डर था कि पढ़ने से उनका पारंपरिक काम बंद हो जाएगा।बधाई माँगना एक कारोबार बन चुका है जो पैसे देगा उसे आशीर्वाद मिलेगा। यहाँ चंडीगढ़ और आस-पास के इलाकों में कई बार लोग उन्हें बोल देते हैं की धंनजय की तरह पढ़ाई और काम क्यूँ नही करते। ये बातें उन्हें चुभती हैं और वो फिर मुझे भी परेशान करते हैं।अपनी पहचान और लैंगिकता के बारे में भी छुपाते हैं।खुल कर बात नही करते।वे कहती हैं किन्नरों को समाज ने जैसा बनाया वो वैसे बन गए और अब वे वापस नही आना चाहते।उन्हें माँगने की आदत हो चुकी है जिससे उन्हें निकाल पाना संभव नही है।
संघर्ष और उपलब्धियाँ
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धंनजय जी ने विश्वविद्यालय को पत्र लिखा की दाखिले से जुड़े सभी फ़ॉर्म में ट्रांसजेंडर का विकल्प रखिये क्योंकि ऐसा करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश है।2015 में ट्रांसजेंडर का विकल्प सभी फ़ॉर्म में आया।
2016 में उन्होंने ट्रांसजेंडर पहचान के साथ विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। जिसके साथ बाकी ट्रांसजेंडर्स के लिए दाखिले के रास्ता साफ हुआ। और धीरे धीरे और भी ट्रांसजेंडर स्टूडेंट्स आना शुरू हुए।
अलग वॉशरूम – उन्होंने ट्रांसजेंडरस् के लिए अलग वॉशरूम बनाने के लिए पत्र लिखा। जिसके लिए पंजाब यूनिवर्सिटी ने 23 लाख का बजट पास किया। ये किसी शैक्षणिक संस्थान में पहला ट्रांसजेंडरस् के लिए बनने वाला वाशरूम था।
एंटी डिस्क्रिमिनेशन सेल बनवाया। ट्रांसजेंडरस् के साथ होने वाले किसी भी तरह के उत्पीड़न का समाधान यहाँ किया जायेगा।
निः शुल्क शिक्षा – ट्रांसजेंडरस् के लिए निःशुल्क शिक्षा आवाज़ उठाई। 2019 में पंजाब यूनिवर्सिटी में ट्रांसजेंडरस् के लिए शिक्षा निःशुल्क हुई।
ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड – 2016 में उन्होंने इसके लिए चंडीगढ़ सरकार को पत्र लिखा। फिर ये बोर्ड बनाया गया। जिसमें बारह सदस्य हैं और उनमें से दो ट्रांसजेंडर हैं।
धंनजय संगीत नाटक अकादमी चंडीगढ़ की सदस्य भी हैं। और ऐसा भी पहली बार हुआ है की इसमें किसी ट्रांसजेंडर को शामिल किया गया हो। वे बतातीं हैं 2018 में जब कनाड़ा के प्रधानमंत्री भारत आये तो उन्होंने मुझे डिनर पे बुलाया, दिल्ली में। ये बड़े सम्मान की बात थी। उन्होंने मेरे सामने कनाड़ा आने और वहाँ उच्च शिक्षा ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा,लेकिन मैंने मना कर दिया। मैंने कहा की मुझे भारत मे रह कर ही काम करना है ताकि मैंने जो सहा है वो आने वाली पीढ़ी को ना सहना पड़े।
वे बतातीं हैं की अभी हम ट्रांसजेंडरस् के लिए वैक्सीनेशन कैम्प का आयोजन कर रहे हैं। इसके साथ ही इसमें आधार कार्ड और वोटर आईडी कार्ड भी बनाया जाएगा। मेडिकल चेकअप और राशन भी ट्रांसजेंडरस् को बांटा जाएगा।
उन्हें जम्मू,दिल्ली और पंजाब जैसे कई विश्वविद्यालयों और संस्थाओं ने सम्मानित भी किया। उन्होंने जगह जगह जाकर लोगों को संबोधित किया और जागरूकता फैलाई।
वे कहती हैं हिंदी के लेखक वर्ग से भी मेरा दो-दो हाथ होता रहता है। जो हिंदी साहित्य के लेखक हैं उनके साथ मुझे माथापच्ची करनी पड़ती है।उनको समझ नही है।पचास के ऊपर के जो लिखने वाले हैं जिन्होंने लेखन में काफ़ी नाम कमाया है, अगर उन्होंने ट्रांसजेंडर पर कोई किताब लिखी भी है तो बड़ी दयनीय स्थिति में।उनकी कहानियाँ झूठी जैसी लगती हैं। उनमें सिर्फ बाहरी बातें हैं। किसी के भीतर क्या चल रहा है, व्यक्तिगत जीवन मे उन्हें क्या क्या झेलना पड़ रहा है इन सब बातों का भारी अभाव है।
बातचीत को अंतिम रूप देते हुए धंनजय बताती हैं की 1993-94 में छात्र ही थे जिन्होंने मुझे परेशान किया था, जिनकी वजह से मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। और 2016 में भी वे समझ समझ नही पा रहे थे लेकिन फिर भी समय मे परिवर्तन हुआ था। मैं अकेली ही जितना कर सकती थी लोगों में जागरूकता लाने की कोशिश कर रही थी।लोगों को ट्रांसजेंडर के बारे में जानकारी नही होती। मेरे दाख़िले के बाद काफ़ी चीज़ें बदली हैं। चंडीगढ़ में,पंचकुला, हरियाणा में काफ़ी लोगों की सोच बदली है, सोचने के नजरिये में परिवर्तन आया है। लोगों को हमारे शरीर के बारे में शंकाएँ रहती थीं कि इनका शरीर कैसा होता होगा। जिस पर मैंने साफ साफ शब्दों में बात करना शुरू किया।समाज मे कदम रख कर ही हमें परिवर्तन करना होगा। हमें अलग से स्कूल कॉलेज नही चाहिए, हमें तो सबके साथ पढ़ना है। साथ रहेंगें तो सब लोगों के दोस्त बनेंगें, एक दूसरे को समझेंगें, जानेंगें, पहचानेंगे। और अपनी बात रख पाएँगे।
मैंने कभी भीख नही माँगी। मेरा रास्ता हमेशा से शिक्षा का रहा। आज मैं जो कुछ हूँ, किताबों की वजह से हूँ, मेरी जो प्रेरणा रहीं वे किताबें रहीं।
शिक्षा बदलाव का रास्ता है।बदलाव आ रहा है, स्वीकार्यता बढ़ रही हैं। लेकिन इस सब के बाद भी मेरे पास कोई नौकरी नही है, घर नही है।किसी तरह से रह रहीं हूँ। ये चीजें समाज को समझनी होंगीं और इसपे काम करना होगा। क्योंकि अगर काम मिलने लगे तो किसी को भीख माँगने की जरूरत क्यूँ पड़े। रोटी, कपड़ा, मकान भी नौकरी से ही आता है, वो अगर ना हो तो बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है अपनी स्वीकार्यता और पहचान के लिए।
जिस शहर में पले बड़े उस शहर में और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। यहाँ जब साड़ी पहनती हूँ तो लोग मुझे देखते ही बेहोश होने लगते हैं। मेरे परिवार और रिश्तेदारों को तो बुखार हो जाता है। इसे क्या हो गया, ये आदमी था औरत क्यूँ बन गया। लेकिन उन्हें नही पता, वो लोग विज्ञान के बारे में नही जानते। लोग जो नौंवी-दसवीं में प्रजनन(रिप्रोडक्शन) का पाठ नही पढ़ते तो वे हमारे बारे में क्या जानेंगे।
ट्रांसजेंडर के लिए शेल्टर होम नही हैं की अगर घर से निकाल दिया जाए तो कहाँ जाएँगे? हॉस्टल नही हैं।हमें बराबरी के अधिकार के साथ बराबरी के अवसर भी चाहिए।विश्वविद्यालयों में अतिरिक्त सीटे होनी चाहिए।महिलाओं और पुरुषों को तो परिवार का साथ मिलता है, सुविधाएं मिलती हैं।हमारे पास तो ऐसा कुछ भी नही है तब भी हम कोशिश कर रहे हैं।
सार्वजनिक जगहों पर सबके लिए अलग अलग वॉशरूम होने चाहिए। नही तो फिर जेंडर न्यूट्रल वॉशरूम कर दीजिए।लेकिन शायद भारत में ये संभव नही है।यहाँ हर दस मिनट में रेप होते हैं। ऐसे समाज मे जहाँ बहुत ज्यादा रेपिस्ट घूम रहे हैं, जहाँ महिलाओं की इज्जत नही है वहाँ ट्रांसजेंडर की इज्जत क्या करेंगें।जो पढ़ी लिखीं अनपढ़ जनता है वो हँसती है,मज़ाक बनाती है, उनको कभी समझ भी नही आयेगा।
समाज के लोगों से कहना चाहती हूँ।अगर माता पिता हमें स्वीकार कर लें तो समाज हमें स्वयंमेव ही स्वीकार लेगा। जिनके घर मे ट्रांसजेंडर बच्चे हैं उनको तो बहुत खुशी होनी चाहिए की उनके घर मे भगवान विष्णु मोहिनी रूप में आए हैं और भगवान शिव अर्धनारीश्वर रूप में।
ट्रांसवीमेन को तो दो तरफा मार का सामना करना पड़ता है एक तरफ समाज दूसरी तरफ हिंजड़े। फिर हम कहाँ जाएँ, कोई सपोर्ट करने वाला नही होता। हिंजड़े जब हमें नकली करार देते हैं, पीटते हैं, तो समाज के नही आते, ना पुलिस आती मदद करने के लिए।वे तो सर्जरी करवा कर फीमेल बन गए हैं। भीख माँग माँग कर उनके पास करोड़ों रुपये हैं।जो डेरे में रहते हैं वो पैसे वाले हैं, अमीर हैं। ये बहुत बड़ा कारोबार है माफ़िया है। और ये माफ़िया तभी बंद होगा जब परिवार हमें स्वीकार करेगा। नौकरी मिलेगी।लेकिन नौकरी के साथ ही समाज को जागरूक भी तो होना चाहिए। अगर कहीं किसी को कहीं नौकरी मिल भी जाती है और वहाँ वही उत्पीड़न और डराना-धमकाना होगा तो नौकरी छूट जाएगी। जैसा मेरे साथ हुआ 1994 में। सरकार को चाहिए कि जागरूकता भी फैलाये और सज़ा का प्रावधान भी करे। 2019 के ट्रांसजेंडर में रिज़र्वेशन की व्यवस्था नही है, ना शिक्षा में, ना नौकरी में तो फिर समानता कैसे आएगी।दुख ये है की जो रेप कानून है वो बराबर नही है। रेप तो रेप होता है चाहे वो किसी के साथ भी हो उसकी सजा बराबर होनी चाहिए।
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